प्रथम प्रश्न
ॐ
भरद्वाज पुत्र सुकेशा, शिबिकुमार सत्यकाम, गर्ग गोत्र में उत्पन्न सौर्यायणी, कौसलदेशीय आश्वलायन, विदर्भदेशीय भार्गव और कत्य का प्रपौत्र कबन्धी – ये ब्रह्मपरायण और ब्रह्मनिष्ठ सभी ब्रह्म की खोज करते हुए भगवन पिप्पलाद ऋषि के पास यह सोचकर कि ये हमें उस विषय में सब बताएँगे, हाथ में समित्पाणि लेकर गए ॥१॥
उन सभी से ऋषि ने कहा – तपस्या, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से युक्त होकर एक वर्ष तक यहाँ निवास करो, फिर अपनी इच्छानुसार प्रश्न करना, यदि मैं जानता होऊँगा तो तुम्हें वह सब बतला दूँगा ॥२॥
अब कत्य प्रपौत्र कबन्धी ने उनके पास जाकर पूछा – भगवन् ! किससे यह सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है ॥३॥
वे उससे बोले – प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से प्रजापति ने ही तप किया । उसने तपस्या करके रयि और प्राण का यह जोड़ा उत्पन्न किया – ये दोनों ही मेरी अनेक प्रकार की प्रजा को उत्पन्न करेंगे ॥४॥
आदित्य ही प्राण है और चंद्रमा ही रयि है । यह जो कुछ भी मूर्त (स्थूल) और अमूर्त (सूक्ष्म) है, सब रयि है अर्थात् मूर्तमात्र ही रयि है ॥५॥
उदय होता हुआ सूर्य जब पूर्व दिशा में प्रवेश करता है तो उससे वह पूर्व दिशा के प्राण को अपनी किरणों में धारण करता है । उसी प्रकार जब वह दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, नीचे, ऊपर और अवान्तर दिशाओं को प्रकाशित करता है उन सबके प्राण को भी अपनी किरणों में धारण करता है ॥६॥
वह यह सूर्य ही उदय होता हुआ वैश्वानर और विश्वरूप प्राण अग्नि है । यही बात ऋचा द्वारा भी कहते हैं ॥७॥
विश्वरूप, रश्मिवान, सर्वज्ञ, सर्वाधार, ज्योतिर्मय वह तपता हुआ सूर्य अद्वितीय है । वह सूर्य ही सहस्त्रों किरणोंवाला होकर, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान प्रजाओं के प्राणरूप से उदित होता है ॥८॥
संवत्सर ही प्रजापति है । दक्षिण और उत्तर उसके दो अयन हैं । जो इष्ट और पूर्त कर्मो की ही उपासना करते हैं । वे चन्द्रलोक पर ही विजय पाते हैं । वे ही पुनः आवागमन को प्राप्त होते हैं । अतः ये प्रजाकामी ऋषिगण दक्षिण मार्ग को प्राप्त होते है । यही वह रयि है, यही पितृयाण है ॥९॥
तथा जो तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, और विद्या द्वारा आत्मा की खोज करते हैं, वे उत्तर मार्ग द्वारा सूर्यलोक को प्राप्त होते हैं । यही प्राणों का आश्रय है, यही अमृत है, यही अभय है, और यही परम गति है । इससे फिर लौटना नहीं होता । अतः यही निरोध है । इस विषय में यह श्लोक है ॥१०॥
कई अन्य इसे पाँच पाद वाला, सबका पिता, बारह आकृतियों वाला, जल का उत्पादक, देवलोक से भी ऊँचा स्थित बताते हैं । कई अन्य उस परे होकर भी सबको जानने वाले को सात चक्रों और छः अरों पर बैठा हुआ बताते हैं ॥११॥
मास ही प्रजापति है । उसका कृष्णपक्ष ही रयि है एवं शुक्लपक्ष प्राण है । अतः ये ऋषिगण शुक्लपक्ष में ही इष्ट कर्म करते हैं तथा वे दूसरे उस दूसरे पक्ष में ॥१२॥
दिन-रात भी प्रजापति है । उसका दिन ही प्राण है और रात्रि ही रयि है । जो दिन में रति हेतु संयुक्त होते हैं, वे अपने ही प्राण को क्षीण करते हैं और जो रात्रि में रति के लिए संयुक्त होते हैं, वह तो ब्रह्मचर्य ही है ॥१३॥
अन्न ही प्रजापति है । अन्न से ही वीर्य उत्पन्न होता है और उस वीर्य से ही यह प्रजा उत्पन्न होती है ॥१४॥
जो भी इस प्रकार उस प्रजापतिव्रत का आचरण करते हैं, वे मिथुन को उत्पन्न करते हैं । उन्ही के लिए यह ब्रह्मलोक है, जिनमें तप है, ब्रह्मचर्य है, और जिनमे सत्य प्रतिष्ठित है ॥१५॥
उन्ही के लिए यह रज-रहित ब्रह्मलोक है, जिनमें कुटिलता, अनृत और और माया नहीं है ॥१६॥
द्वितीय प्रश्न
अब उनसे विदर्भदेश के भार्गव ने पूछा – ‘भगवन् ! कितने देवता इस प्रजा को धारण करते हैं ? कौन इसे प्रकाशित करते हैं ? और फिर कौन उनमें सर्वश्रेष्ठ है ?’॥१॥
वे उससे बोले – ‘आकाश ही वह देव है और वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वाणी, मन, चक्षु और श्रोत्र’ । ये सभी कहने लगे – ‘हम प्रकाशित करते हैं । हमने ही इस शरीर को आश्रय देकर धारण कर रखा है’ ॥२॥
उन सबमे वरिष्ठ प्राण बोला – ‘मोह को प्राप्त मत हो । मैं ही स्वयं को इन पाँच प्रकारों में विभक्त करके इस शरीर को आश्रय देकर धारण करता हूँ’ । किन्तु उन सबने इस पर श्रद्धा नहीं की ॥३॥
तब वह प्राण अभिमानपूर्वक उत्क्रमण करने लगा । उसके उत्क्रमण करने पर सभी उत्क्रमण करने लगते और उसके स्थित हो जाने पर सभी स्थित हो जाते । जिस प्रकार मधुकरराज के ऊपर उठने पर सारी मक्खियाँ ऊपर जाने लगती है और उसके बैठ जाने पर सारीं बैठ जाती हैं, वैसा ही वाक्, मन, चक्षु और श्रोत्र भी हुए । तब संतुष्टि को प्राप्त होकर वे प्राण की स्तुति करने लगे ॥४॥
यह अग्नि होकर तपता है, यह सूर्य है, यह मेघ है, यह इन्द्र है, यही वायु है । यह देव ही पृथ्वी और रयि है, सत् और असत् है, यही अमृत है ॥५॥
रथ की नाभि में लगे हुए अरों के ही सामान ऋक्, यजुः, साम, यज्ञ तथा ब्राह्मण और क्षत्रिय ये सभी प्राण में ही प्रतिष्ठित हैं ॥६॥
हे प्राण ! तू ही प्रजापति है । तू ही गर्भ में विचरता हुआ जन्म लेता है । सबमें प्रतिष्ठित तुझ प्राण को ही यह सम्पूर्ण प्रजा बलि समर्पित करती है ॥७॥
तू देवताओं के लिए उत्तम अग्नि है, पितृगण के लिए प्रथम स्वधा है और अथर्वांगिरस ऋषियों द्वारा आचरित सत्य है ॥८॥
हे प्राण ! तू इन्द्र है । तेजरूपी रूद्र है । रक्षक है । तू ही अन्तरिक्ष में विचरता हुआ सूर्य है । तू ही समस्त ज्योतियों का स्वामी है ॥९॥
हे प्राण ! तू ही जब वर्षा का रूप लेकर बरसता है, तब तेरी यह समस्त प्रजा ‘यथेष्ठ अन्न उत्पन्न होगा’ इस प्रकार आनन्दरूप से स्थित होती है ॥१०॥
हे प्राण ! तू ही संस्काररहित एकमात्र ऋषि है । विश्व का सर्वश्रेष्ठ स्वामी है । हम तेरा भक्ष्य देनेवाले हैं । तू ही वायुस्वरूप हमारा पिता है ॥११॥
तेरा जो स्वरूप वाणी, चक्षु और श्रोत्र में प्रतिष्ठित है तथा मन में व्याप्त है । उसे तू कल्याणमय कर । उत्क्रमण न कर ॥१२॥
यह सब जो तीनों लोकों में स्थित है सब प्राण के ही अधीन है । जैसे माता पुत्र की रक्षा करती है, उसी प्रकार हमारी रक्षा कर एवं श्री और प्रज्ञा प्रदान कर ॥१३॥
तृतीय प्रश्न
अब कौसलदेश के आश्वलायन ने उनसे पूछा – भगवन् यह प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है ? इस शरीर में कैसे आता है ? तथा स्वयं को विभक्त करके किस प्रकार स्थित होता है ? किस कारण उत्क्रमण करता है तथा किस प्रकार बाह्य और अन्तरजगत को धारण करता है ?॥१॥
वे उससे बोले – ‘तू अतिप्रश्न पूछता है । तू ब्रह्म में श्रद्धा रखने वाला है अतः मैं तेरे सभी प्रश्नों का उत्तर दूँगा’ ॥२॥
यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है । जिस प्रकार पुरुष से उसकी छाया उत्पन्न होती है उसी प्रकार प्राण आत्मा के ही आश्रित है । यह मन के द्वारा किये गए संकल्पों से इस शरीर में आता है ॥३॥
जिस भाँति सम्राट ही ‘इस ग्राम में तुम रहो, इस ग्राम में तुम रहो’ – इस प्रकार अधिकारियों को नियुक्त करता है, उसी प्रकार यह मुख्य प्राण ही दूसरे प्राणों को पृथक-पृथक नियुक्त करता है ॥४॥
पायु और उपस्थ में ‘अपान’ को, मुख-नासिका-चक्षु-श्रोत्र में ‘प्राण’ स्वयं को और मध्य भाग में ‘समान’ को प्रतिष्ठित करता है । यह (समान) ही ग्रहण किये गए अन्न को समभाव से शरीर में वितरित करता है । उससे ही ये सात ज्वालाएँ उत्पन्न होती हैं ॥५॥
यह आत्मा हृदय में है । इस हृदयदेश में एक सौ एक नाड़ियाँ हैं । उनमें से एक-एक की सौ-सौ शाखाएँ हैं और बहत्तर-बहत्तर हजार प्रतिशाखा नाड़ियाँ होती है । इनमें ‘व्यान’ संचार करता है ॥६॥
इनमे एक ऊपर की ओर है, जिसमें गमन करने वाला ‘उदान’ पुण्य द्वारा पुण्यलोक में और पाप के द्वारा पाप लोक में ले जाता है और दोनों के उभय फलस्वरूप मनुष्यलोक में ॥७॥
आदित्य ही वह बाह्य प्राण है जो चक्षु के प्राण पर अनुग्रह करता हुआ उदित होता है । पृथ्वी में जो देवता है वही पुरुष के अपान को आकर्षण किये हुए है । इन दोनों के बीच में यह जो आकाश है वह समान है और वायु ही व्यान है ॥८॥
तेज ही वह उदान है । इसलिए जिसका तेज शान्त हो जाता है, वह मन में लीन हुई इन्द्रियों सहित पुनर्जन्म को प्राप्त होता है ॥९॥
जैसा चित्त होता है, उस संकल्प के साथ ही मुख्य प्राण को प्राप्त हो जाता है । यह प्राण तेज से युक्त हो आत्मा सहित संकल्पानुसार भिन्न-भिन्न लोकों को ले जाता है ॥१०॥
जो विद्वान् प्राण को इस प्रकार जानता है उसकी प्रजा नष्ट नहीं होती । वह अमर हो जाता है । ऐसा यह श्लोक है ॥११॥
प्राण की उत्पत्ति, आगम, स्थान, विभुत्व और आध्यात्मिकता – इन पाँचों प्रकार से जानकर अमृत का अनुभव करता है, अमृत का अनुभव करता है ॥१२॥
चतुर्थ प्रश्न
अब गर्गगोत्रीय सौर्यायणी ने उनसे पूछा – भगवन् इस पुरुष में कौन सोता है ? कौन जागता है ? कौन यह देवता स्वप्नों को देखता है ? यह सुख किसके द्वारा अनुभव होता है ? यह सब किसमें समानरूप से प्रतिष्ठित रहता है ? ॥१॥
वे उससे बोले – हे गार्ग्य ! जिस प्रकार अस्त होते हुए सूर्य की किरणें उस तेजोमण्डल में ही एकत्रित हो जाती हैं तथा उसके उदय होने पर पुनः फैल जाती हैं । उसी प्रकार ये सभी इन्द्रियाँ उस परदेव मन में एकीभाव को प्राप्त हो जाती हैं । उस समय वह पुरुष न सुनता है, न देखता है, न सूँघता है, न स्वाद लेता है, न स्पर्श करता है, न बोलता है, न ग्रहण करता है, न आनन्दित होता है, न मलोत्सर्ग करता है, न ही कोई चेष्टा करता है । तब उसे ‘सो रहा है’ ऐसा कहते हैं ॥२॥
इस शरीररूपी नगर में प्राणाग्नियाँ ही जागती रहती हैं । यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है । व्यान अन्वाहार्य पचन अग्नि है । गार्हपत्य अग्नि के द्वारा ही प्रणयन के लिए वह आहवनीय प्राण ले जाया जाता है ॥३॥
उच्छ्वास और निःश्वास ये दोनों ही आहुतियाँ हैं । आहुति को समभाव से पहुँचाने वाला समान है । यह मन ही यजमान है । इष्टफल ही उदान है । यह उदान ही इस यजमान को नित्यप्रति ब्रह्म के समीप ले जाता है ॥४॥
इस स्वप्नावस्था में यह देव् अपनी महिमा का अनुभव करता है । देखे-देखे हुए को पुनः देखता है । सुनी-सुनी बातों को पुनः सुनता है । देश-दिशाओं में अनुभव किये हुए को पुनः-पुनः अनुभव करता है । देखे हुए, न देखे हुए को, सुने हुए, न सुने हुए को, अनुभव किये हुए और न अनुभव किये हुए को भी, सत् और असत् – सबको देखता है और सर्वरूप होकर भी देखता है ॥५॥
जब मन तेज से अभिभूत हो जाता है, तब यह देव स्वप्न नहीं देखता । उस समय इस शरीर में वह सुख को प्राप्त होता है ॥६॥
हे सौम्य ! जिस प्रकार पक्षी अपने निवास वृक्ष पर जाकर बैठते हैं । उसी प्रकार वे सब भी उस श्रेष्ठ आत्मा में स्थित हो जाते है ॥७॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और उनके तन्मात्र – गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द भी । चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, त्वचा और इनसे सम्बन्धित विषय भी । वाक्, हस्त, उपस्थ, पायु, पाद और इनसे सम्बन्धित क्रियाएँ भी । मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त, तेज और उनसे सम्बन्धित विषय भी । प्राण और प्राण द्वारा धारणीय भी ॥८॥
यही द्रष्टा, स्पृष्टा, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता, बोद्धा, कर्ता और विज्ञानात्मा पुरुष है । वह पर-अक्षर आत्मा में सम्यक प्रकार से स्थित हो जाता है ॥९॥
उस छायारहित, अशरीरी, अलोहित, शुभ्र, अक्षर, को जो पुरुष जानता है वह उस पर-अक्षर को ही प्राप्त हो जाता है । हे सौम्य ! वह सर्वज्ञ और सर्वरूप हो जाता है । ऐसा यह श्लोक है ॥१०॥
हे सौम्य ! जिसमें विज्ञानस्वरूप आत्मा सहित समस्त देव, प्राण और भूत सम्यक प्रकार से प्रतिष्ठित होते हैं, उस अविनाशी को जो जान लेता है वह सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप में ही प्रवेश कर जाता है ॥११॥
पञ्चम प्रश्न
अब शिबिपुत्र सत्यकाम ने उनसे पूछा – भगवन् ! मनुष्यों में जो कोई भी मृत्युपर्यन्त उस ओंकार का ध्यान करता है, उससे वह किन लोकों को जीत लेता है ?॥१॥
वे उससे बोले – हे सत्यकाम ! यह ओंकार ही वह पर और अपर ब्रह्म है । विद्वान् पुरुष इसी के आश्रय से दोनों में से किसी एक को प्राप्त हो जाता है ॥२॥
वह यदि ओंकार की एक मात्रा का ध्यान करता है तो उससे संवेदना को प्राप्त कर शीघ्र ही जगत में उत्पन्न होता है । उसे ऋचाएँ मनुष्य लोक में ले जाती हैं । वहाँ वह तप, ब्रह्मचर्य, और श्रद्धा से संपन्न होकर महिमा का अनुभव करता है ॥३॥
यदि वह दो मात्राओं की मन से उपासना करता है, तो वह अन्तरिक्ष को प्राप्त होता है । उसे यजुःश्रुतियाँ सोमलोक में ले जाती हैं । सोमलोक की विभूतियों का अनुभव कर वह पुनः लौट आता है ॥४॥
पुनः जो तीन मात्राओं वाले इस ‘ओम्’ द्वारा परमपुरुष का ध्यान करता है वह तेजोमय सूर्यलोक को प्राप्त होता है । जिस प्रकार सर्प केंचुली से निकल आता है, उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है । वह सामश्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है । वह इस जीवनघन से परे उस हृदयस्थ परम पुरुष का साक्षात करता है । इस सम्बन्ध में ये श्लोक हैं ॥५॥
तीनों ही मात्राएँ मृत्यु से युक्त है, एक दूसरे से संयुक्त रहकर प्रयुक्त की गयी हों या प्रथक-प्रथक करके प्रयुक्त की गयी हों । बाह्य, आभ्यान्तर और मध्य क्रियाओं में उनका सम्यक प्रयोग किया जाने पर ज्ञानी विचलित नही होता ॥६॥
ऋक् द्वारा इस लोक को, यजुः द्वारा अंतरिक्ष को और साम द्वारा उस लोक को ले जाया जाता है जिसे ज्ञानी पुरुष जानते हैं । उस ओंकार के आलम्बन द्वारा ही विद्वान् उसे पा लेता है, वह जो शान्त, जरारहित, मृत्युरहित, भयरहित और सर्वश्रेष्ठ है ॥७॥
षष्ठ प्रश्न
अब भरद्वाज पुत्र सुकेशा ने पूछा – भगवन् ! कौसलदेशीय राजपुत्र हिरण्यनाभ ने मेरे पास आकर यह प्रश्न पूछा था – ‘भरद्वाज ! सोलह कलाओं वाले वाले पुरुष को जानते हो ?’ उस राजकुमार से मैंने कहा – ‘मैं इसे नही जानता, यदि जानता तो तुझे क्यों नहीं बताता । वह जो झूठ बोलता है वह मूलसहित सूख जाता है । अतः मैं झूठ बोलने में समर्थ नहीं हूँ ।’ तब वह चुपचाप रथ पर सवार होकर चला गया । वही मैं आपसे पूछता हूँ कि ऐसा पुरुष कहाँ है ?॥१॥
वे उससे बोले – हे सौम्य ! यहाँ शरीर के भीतर ही है, वह पुरुष जिसमें इन सोलह कलाओं का प्रादुर्भाव होता है ॥२॥
उसने विचार किया कि किसके उत्क्रमण करने से मैं भी उत्क्रमण को प्राप्त होऊँगा और किसके स्थित होने पर मैं भी स्थित होऊँगा ?॥३॥
उसने प्राण का सृजन किया । फिर प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन, और अन्न एवं अन्न से वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म और लोक तथा लोकों में नाम को उत्पन्न किया ॥४॥
जिस प्रकार समुद्र की ओर बहती हुई ये नदियाँ समुद्र में पहुँचकर अस्त हो जाती हैं, उनके नाम- रूप नष्ट हो जाते हैं, और फिर वे ‘समुद्र’ कहकर ही पुकारी जाती हैं । इसी प्रकार इस सर्वद्रष्टा की ये सोलह कलाएँ, जिनका वह पुरुष ही अधिष्ठान है, उस पुरुष को प्राप्त हो उसी में लीन हो जाती है, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे ‘पुरुष’ कहकर ही पुकारी जाती हैं । ऐसा वह कलारहित और अमर है । इस प्रकार यह श्लोक है ॥५॥
जिस प्रकार रथ की नाभि में अरे स्थित होते हैं, उसी प्रकार ये सभी कलाएँ जिसमें प्रतिष्ठित हैं, वही पुरुष जानने योग्य है, जिससे कि मृत्यु तुम्हें कष्ट न पहुँचा सके ॥६॥
वे उन सबसे बोले – इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ । इसके पर कुछ नही है ॥७॥
तब उन्होंने उनकी अर्चना करते हुए कहा – आप हमारे पिता हैं, जिन्होंने अविद्या के पार पहुँचा दिया है । आप परमऋषि को नमस्कार है परमऋषि को नमस्कार है ॥८॥